पटना 1999 में हुए शिल्पी-जैन और गौतम-सिंह की संदिग्ध मौतों का मामला दो दशकों से भी अधिक समय तक अनसुलझा पड़ा रहा. अब 26 साल बाद यह पुराना मामला फिर से बिहार की सियासत की चकाचौंध में आ गया है और इस बार आरोपों की आग प्रशांत किशोर ने लगाई है. जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर यह आरोप लगाया कि उनकी पहचान उस वक्त राकेश कुमारके नाम से हुई थी और सीबीआई ने उनके ब्लड सैंपल लिए थे. सम्राट चौधरी ने इन आरोपों को कच्चा, राजनीतिक और पूरी तरह झूठा करार दिया है.

इस खबर की तह में उतरने पर जो तस्वीर उभरती है, वह सरल नहीं बल्कि जटिल धाराओं, अधूरी जांच और राजनीतिक अनुषंगों की गौंचा है. उस समय की जांच रिपोर्टों, स्थानीय गवाहियों और बाद की पूछताछों में कई ऐसे छेद मिले जिनकी भरपाई आज तक नहीं हो पाई है. शिल्पी-गौतम की घटनास्थल स्थिति, शरीर पर मिले निशान और कार की हालत ने शुरुआती दौर में ही कई सवाल खड़े कर दिए थे. परिवार ने हत्या का दावा किया, पुलिस ने प्राथमिक निष्कर्ष में आत्महत्या का एंगल अचानक तेज किया और फिर मामला सीबीआई को ट्रांसफर हुआ.

राकेश’ — नाम, शख्स और सियासत

सीबीआई जांच के दौरान एक राकेशका नाम और उसकी कार का संदर्भ रिपोर्टों में आया. स्थानीय यादों के मुताबिक वह हाजीपुर का रहने वाला था और कहा जाता है कि उसका छोटा-मोटा आइसक्रीम-व्यवसाय था. हालांकि जांच में डीएनए और ब्लड-टेस्ट से स्पष्ट, अटल प्रमाण नहीं मिले यही वजह रही कि 2003 में सीबीआई ने केस को आत्महत्या मानकर बंद कर दिया. लेकिन जब कोई राजनीतिक नेता आज कहता है कि वही राकेश असल में एक वर्तमान राजनीतिक शख्स है, तो मामला फिर गरमा उठता है.

प्रशांत किशोर ने जो दावे सार्वजनिक रूप से किए, वे सिर्फ निजी आरोप नहीं थे उन्होंने संकेत दिया कि उनके पास कॉन्फिडेंशियल डॉक्यूमेंट्सभी मौजूद हैं और यदि जरूरत पड़ी तो वे उन्हें सार्वजनिक करेंगे. यह दांव चुनावी संवेदनशीलता और मीडिया की जिज्ञासा दोनों को एक साथ जगा देता है. प्रशांत किशोर की राजनीति और उनकी क्रियाशीलता इस बात की वजह बनती है कि पुराने मामले भी आज के माहौल में तात्कालिक असर छोड़ सकते हैं.

सम्राट चौधरी का पक्ष सख्त इनकार और कानूनी चैनल का इशारा

सम्राट चौधरी ने आरोपों को सिरे से नकारते हुए कहा है कि उपनाम-पहचान में किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं है जांच में आई राकेशवे नहीं हैं. उनका कहना है कि वे यह सब राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश मानते हैं और जरूरत पड़ी तो वे अदालत में जाकर अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों का जवाब देंगे. उन्होंने वर्षों पहले के लोगों को निशाना बनाकर पलटवार किया और प्रशांत किशोर पर स्वयं राजनीतिक मकसद से पुरानी बातें उछालने का आरोप लगाया.

कानूनी दृष्टि से भी यह मामले में नया मोड़ ला सकता है यदि किसी ने सबूत सार्वजनिक कर दिए तो अदालत और जांच एजेंसियों की भूमिका पुनर्जीवित हो सकती है. पर ऐतिहासिक सबूतों का अभाव, गवाहों की याददाश्त का फीका पड़ना और रिकॉर्ड की नदारदियाँ इसे आसान नहीं बनातीं.

पीड़ित परिवार और न्याय की मांग

इस पूरे विवाद के केंद्र में अब भी शिल्पी-जैन का परिवार खड़ा है. परिवार ने वर्षों तक आवाज उठाई, सवाल किए और न्याय की गुहार लगाई. उनके लिए यह कोई राजनीतिक खेल नहीं; उन्हें आज भी उस दिन के तथ्य और सच्चाई चाहिए जिनसे परिवार को मन की शांति मिल सके. इस विवाद ने परिवार के पुराने घावों को फिर से खोल दिया है और राजनीति का उस दर्द पर होना उन्हें व्यथित करता है.

चुनावी निहितार्थ कितना असर होगा?

चुनावी संदर्भ में यह मुद्दा असल में दो तरह का असर डाल सकता है. पहला यह विपक्ष के लिए एक हथियार बन सकता है जिससे पुराने शासन-काल और 'जंगलराज' जैसी बातें दोबारा उठाई जा सकें. दूसरा यदि आरोपों के साथ ठोस दस्तावेज़ आते हैं तो इससे किसी व्यक्तिगत करियर पर असर पड़ सकता है. परंतु अभी तक जो सार्वजनिक बहस है वह आरोप-प्रत्यारोप पर निर्भर है, न कि अपरिवर्तनीय सबूतों पर. इसलिए चुनावी गलियारे इसे चुना हुआ मुद्दा बनाएंगे या भुला देंगे यह आने वाले दिनों में सियासी चालों पर निर्भर करेगा.

निष्कर्ष रहस्य बना हुआ है राकेश

असली सवाल वही है: 26 साल बाद क्या सच पूरी तरह उभर कर सामने आएगा? अभी के हालातों में, ‘राकेशका असली चेहरा हाय-हाय करता हुआ रहस्य बना हुआ है. राजनीतिक बयानबाजी और चुनावी रणनीति इसे और ऊँचा कर सकती है, पर सच्चाई तभी ज्यों-की-त्यों सामने आएगी जब ठोस, दस्तावेजी सबूत और वैध जांच होंगी. तब तक यह मामला बिहार की राजनीति का वह पुराना जख्म बना रहेगा जो हर बार हवा मिलते ही दर्द बढ़ा देता है.